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रविवार, 9 अगस्त 2009

बुंदेलखंड : विकास कम, राजनीति ज्यादा

बुंदेलखंड : विकास कम, राजनीति ज्यादा


जरा इस तस्वीरों को जरा गौर से देखिए। कुछ याद आया। जी हां ये तस्वीर है बुंदेलखंड की जहां कमोबेश हर साल यही स्थिति देखने को मिलती है जब इस इलाके के किसान आसमान की ओर टकटकी लगाए इन्द्र भगवान को याद करते हैं।

आज कल बुंदेलखंड सुर्खियों में है। सुर्खियों में इसलिए है क्योंकि बुंदेलखंड के विकास की बातें कम, इस पर राजनीति ज्यादा हो रही है। कैसी राजनीति हो रही है, इस पर प्रकाश डालने से पहले ये जान लेना जरूरी है कि आखिर बुंदेलखंड है क्या चीज और इसका भौगोलिक और आर्थिक महत्व क्या है। बुंदेलखंड को भारत का दिल कहा जाता है। दरअसल बुंदेलखंड कुछ हिस्सा उत्तर प्रदेश और इसका एक बड़ा हिस्सा मध्य प्रदेश में। पन्ना में हीरे की खानें, खजुराहों के मंदिर, महोबा का पान, चीत्रकूट के घने जंगल, ओरछा के महल और केन, बेतवा और चंबल जैसी नदियां इस इलाके की धरोहर हैं। वेद व्यास, तुलसीदास, आल्हा-ऊदल, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से लेकर मैथिलीशरण गुप्त और हॉकी के जादूगर या भगवान मेजर ध्यानचंद तक कितनी ही शख्सीयतों की जन्मस्थली यही क्षेत्र है। सभी मायनों में अनूठा ये इलाका आर्थिक मामलों में बेहद ही पिछड़ा हुआ हुआ है।


मौजूदा समय में करीब 5 करोड़ की जनसंख्या वाले इस इलाके को अलग राज्य बनाने की मांग लगभग 5 दशकों से चली आ रही है। इस अलग राज्य में यूपी के झांसी, जालौन, ललितपुर, हमीरपुर, महोबा, बांदा, चित्रकूट और मध्य प्रदेश के दतिया, टीकमगढ़, छत्तरपुर, पन्ना, दमोह और सागर जिलों को शामिल करने का प्रस्ताव है। इसके अलावा कई बार मध्य प्रदेश के मुरैना, शिवपूरी, भिंड, ग्वालियर, शिवपुर, गुना और अशोकनगर को भी शामिल करने की मांग उठती रही है।

बात हो रही थी बुंदेलखंड सुर्खियों में रहने की। दरअसल कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के एजेंडे में बुंदेलखंड के विकास का एजेंडा काफी समय से रहा है। इसी के मद्देनजर उन्होंने पिछले साल का दौरा करने के बाद इस क्षेत्र के लिए विशेष आर्थिक पैकेज की मांग की थी। इस क्षेत्र के विकास लिए ही पिछले महीने राहुल गांधी प्रधानमंत्री से मिलकर बुंदेलखंड विकास प्राधिकरण बनाने की मांग की। फिर क्या था यूपी और मध्य प्रदेश के सत्तारूढ़ दलों को राहुल का प्रस्ताव नगवार गुजरी यूपी में बहुजन समाज पार्टी और मध्य प्रदेश में बीजेपी की सरकार है। जाहिर सी बात है कि यहां राजनीति के नफा-नुकसान की बात तो आनी ही थी, इसलिए इनके प्रतिनिधियों ने लोक सभा में हंगामा मचाया और कहा कि केन्द्र सरकार संघीय ढांचे से छेड़छाड़ कर रही है। यहां राहुल ने बुंदेलखंड के विकास की बात तो सोची, लेकिन इनके पीछे भी दूरगामी राजनीतिक रणनीति है। रणनीति इसलिए भी की कांग्रेस का जनाधार इन दोनों राज्यों में बहुत ही कम है। हालांकि गत लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को थोड़ी उम्मीद दोनों राज्यों बढ़ी है। इसलिए कांगेस एक दूरगामी रणनीति पर आगे बढ़ रही है।

गौरतलब है कि यूपी की मुख्यमंत्री मायावती ने बुंदेलखंड के सर्वांगीण विकास के लिए केन्द्र सरकार से 9 हजार करोड़ रूपए की मांग की थी, लेकिन केन्द्र सरकार ने नहीं दिया। जहां तक मध्य प्रदेश की सरकार प्रश्न है तो दो साल पहले ही बुंदेलखंड विकास प्राधिकरण बना चुकी है, लेकिन केन्द्र सरकार इसको आर्थिक मदद देने के बजाय नया प्राधिकरण बनाने की बात कर रही है, जो दोनों राज्यों के सत्तारूढ़ दलों को नागवार गुजर रही है। हो भी क्यों नहीं आखिर वोट बैंक का सवाल है भाई। जब बुंदेलखंड का विकास हो ही जाएगा तो फिर ये मुद्दा ही मर जाएगा। इसलिए सभी लोग, चाहे किसी भी पार्टी का क्यों न हो वे नहीं चाहते हैं कि बुंदेलखंड का विकास हो। बुंदेलखंड पर कुछ हो तो राजनीति और सिर्फ राजनीति। विकास की बातें कम राजनीति ज्यादा। जब तक राजनीतिज्ञों में इच्छाशक्ति नहीं होगी तब तक इस खंड मतलब बुंदेलखंड का विकास संभव नहीं है।

रविवार, 12 अप्रैल 2009

टिकट के लिए कुछ भी करेगा................

टिकट के लिए कुछ भी करेगा..........


इस तस्वीर को देखिए..............आप सोच रहे होंगे कि पेड़ पर चढ़ा ये शख्स नए जमाने का वीरू होगा। अगर आप ऐसा सोच रहे हैं तो बिल्कुल गलत सोच रहे हैं, जी हां। इस तस्वीर को देख कर आपको फिल्म शोले के वीरू की यादें तो जरूर ताजा हो गईं होंगी, जिसमें वसंती से शादी नहीं होने पर वीरू टॉवर पर चढ़ जाता है। लेकिन यहां तो बात ही कुछ और ही जनाब। दरअसल ये नजारा है दिल्ली स्थित कांग्रेस मुख्यालय का, जहां यूपी के जलेसर के पूर्व विधायक प्रेमपाल सिंह पेड़ पर चढ़ गए। मन में सांसद बनने की हसरते थी, इसलिए उसने कांग्रेस मुख्यालय का रूख किया। लेकिन उसकी हसरत पूरी हुई। फिर क्या था....प्रेमपाल एकदम वीरू बन गए। देखते ही देखते विधायक जी तो पेड़ से अपना बायोडाटा फेंकने लगे। जी हां बायोडाटा फेंक कर अपनी दावेदारी को मजबूत कर रहे थे। ऐसा पहली बार नहीं है जब प्रेमपाल वीरू बने हों। इससे पहले भी कई बार वो पेड़ पर चढ़ चुके हैं। जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने इनकार किया था, उस समय भी प्रेमपाल सिंह 10 जनपथ के पास स्थित पेड़ पर चढ़ गये थे। अब उनको खुद टिकट चाहिए था इस लिए कांग्रेस मुख्यालय के इस पेड़ पर चढ़कर उन्होंने लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा। प्रेमपाल के संसद बनने की हसरते पूरी होती है या नहीं ये तो कांग्रेस के आला कमान पर ही निर्भर करता है, लेकिन अपनी इन हरकतों से वो मीडिया की सुर्खियां जरूर बन गए। हम तो यही कहेंगे कि लगे रहो प्रेमपाल भाई..........।

बुधवार, 8 अप्रैल 2009

सब गोलमाल है भाई...........................................

सब गोलमाल है भाई............

चुनावी मौसम आते ही भारत में ये तस्वीर आम है। इन दृश्यों को देखकर आप एक बार ये जरूर सोचेंगे कि हमारे नेता अपने पांच सालों का हिसा देने आएं हैं। सभी पार्टियां अपने वोटरों को को लुभाने के लिए हर प्रयास करने लगती है। हर पार्टियां अपनी उपलब्धियों, मुद्दों और नीतियों का बखान करने लगती हैं। क्या सचमुच में राजनीतिक पार्टियां अपना हिसाब देती हैं। जी नहीं...हिसाब देने आए और वोट लेने आए इन पार्टियों में से अधिकतर अपने चंदों और खर्चों को लेकर पूरी तरह बंद बक्से जैसे हैं। संसद में सत्तापक्ष के साथ और विपक्ष में बैठने वाले दलों की तादाद एक हजार पचपन है। इनमें से मात्र 18 दलों ने अपने चंदों का ब्यौरा चुनाव आयोग को सौंपा है। बाकी पार्टियां अपनी पारदर्शिता और जवाबदेही तय कराने के नियमों की अनदेखी कर रहे हैं। कम से कम चुनाव आयोग से मिली जानकारी तो यही कहती है। आयोग से मिली जानकारी के मुताबिक जहाँ एक ओर पारदर्शिता से बच रही पार्टियाँ बेनकाब हुईं वहीं यह भी पता चला कि जिन्हें चंदा मिल रहा है, वो किससे और कितना पैसा ले रहे हैं। यूपीए सरकार की अहम उपलब्धियों में से एक सूचना का अधिकार क़ानून भी शामिल है, लेकिन यूपीए के साथी नेता मसल, रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवा, करुणानिधि, शिबू सोरेन जैसे बड़े नेता भी उस सूची में हैं जिनकी चुनाव आयोग को जानकारी देने में कोई रुचि नहीं है। अपनो चंदों को लेकर आए दिन चर्चा में रहनेवाली बहुजन समाज पार्टी के चंदों के बारे में चुनाव आयोग को रत्तीभर की जानकारी नहीं है। इसकी वजह साफ है, पार्टी ने कभी इसकी ज़रूरत ही नहीं समझी। तृणमूल कांग्रेस, पीडीपी, फ़ॉरवर्ड ब्लाक, राष्ट्रीय लोकदल, आरएसपी, नेशनल कांफ्रेंस जैसी 1000 से ज़्यादा पार्टियां चुनाव आयोग को उन्हें मिल रहे चंदे से संबंधित जानकारी नहीं दे रही हैं। चुनाव आयोग से मिली सुचना के मुताबिक एक अहम तथ्य सामने आया है। कुछ संस्थाएं कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही राजनीतिक पार्टियों को चंदा दे रही है। मसलन यूनियन कार्बाइड की वर्तमान मालिक, डाओ कैमिकल्स जैसी कंपनियाँ भी राजनीतिक दलों के लिए अछूता नहीं हैं। यहां तक कि भारती जनता पार्टी ने उनसे भी चंदा स्वीकार किया है। और तो और, गोवा के अधिकतर दानदाता ऐसे हैं जो दोनों ही दलों को मोटा चंदा देते रहे हैं. ये दानदाता बिल्डिंग, कंस्ट्रक्शन और खनन से जुड़ी हुई संस्थाएं हैं। पार्टियों को मिले चंदे पर नज़र डालें तो कुछ पार्टी तो करोड़ों रूपए लेकर काम करती नज़र आती हैं लेकिन कुछ दल ऐसे हैं जिनको मिले चंदे की ओर नज़र डालें और फिर उनके खर्चों पर तो लगता है कि मामला आमदनी अठन्नी, खर्चा रूपइया जैसा है। मसलन, समाजवादी पार्टी को वर्ष 2007-08 के दौरान केवल 11 लाख रूपए मिले। इस बारे में चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार से सिफ़ारिश की थी कि राजनीतिक दलों के पैसे की ऑडिट के लिए एक संयुक्त जाँचदल बनाया जाए जो राजनीतिक दलों के खर्च पर नज़र रखे। इससे पार्टियों की पारदर्शिता तो तय होती ही, साथ ही राजनीतिक दलों के खर्च और उसके तरीके पर भी नियंत्रण क़ायम होता। लेकिन केंद्र सरकार ने इस सिफारिश को फिलहाल ठंडे बस्ते में ही रखा है। सचमुच, पैसे की न कोई पार्टी है, न विचारधारा। तो ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि ये मामला तो सचमुच गोलमाल का है। जी हां सब गोलमाल है..............

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008

मुद्दें और भी हैं राजनीति के लिए...........................

मुद्दें और भी हैं राजनीति के लिए........................................

मराठी और गैर मराठी विवाद पर महाराष्ट्र में, खासकर मुबई में, क्षेत्रवाद की जो आग एमएनएस और शिवसेना ने लगायी है, उसकी लपटें बुझने की बजाय लगातार फड़कती ही जा रही हैं। और इस आग की लपटों का शिकार हो रहे हैं उत्तर भारतीय।

मुबई में बिहार के राहुल राज के एनकाउंटर का मामला अभी ठंठा भी नहीं हुआ था कि ठाणे में एक और उत्तर भारतीय को पीट-पीट कर मौत के घाट उतार दिया। उत्तर प्रदेश के संतकबीर नगर के रहने वाले धर्मदेव राय अपने घर लौट रहा था। लेकिन उसे क्या मालूम था कि उसका ये सफर जिन्दगी का आखरी सफर होगा। उसे नहीं मालूम था कि उसके घर की सफर मौत के सफर में तब्दील हो जाएगी। उत्तर भारतीय होने का खामियाजा उसे अपनी जान देकर चुकाना पड़ा। धर्मदेव की मौत के बाद मुंबई में रह रहे उसके परिजनों में काफी दहशत का माहौल है। दहशत भी ऐसा कि महाराष्ट्र को तुरंत अलविदा कहना चाहते हैं। एमएनएस के आतंक का खौफ ऐसा कि वो अब महाराष्ट्र में अपनी जबान खोलने से खौफ खा रहे हैं।

महाराष्ट्र में जारी नफरत की आग जब सियासी हलकों में गर्मायी तो पिछले दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सूब के मुख्यमंत्री को फोन पर नसीहत देते हुए ऐसी घटनाओं पर तुरंत लगाम लगाने को कहा। जिसके बाद मुख्यमंत्री को लगा कि राज्य में सब कुछ ठीक नहीं है। प्रधानमंत्री की नसीहत के बाद मुख्यमंत्री ने सभी को सुरक्षा देने का वादा किया था।

लेकिन देशमुख साहब आप ने पीएम को भरोसा दिलाया था कि मुबई में सबकी सुऱक्षा की करेंगे। कहां गए आपके वादे।
एक तरफ तो आप सुरक्षा का भरोसा देते हैं, वहीं दूसरी तरफ उत्तर भारतीयों का सरेआम हमलें जारी है। ये कैसी सुरक्षा देशमुख साहब ? देशमुख साहब कुछ सवाल ऐसे हैं जिनके जबाव आपसे पूरा देश मांग रहा है।
आपके एक मंत्री ने तो बुलेट का जबाव बुलेट से देने की बात की थी। लेकिन मुंबई पुलिस अब क्यों सुस्त हो गई। फुर्ती दिखाने वाली पुलिस की बोलती क्यों बंद है? राहुल राज के पास तो हथियार था, लेकिन धर्मदेव के पास क्या था। आखिर कहां गए वो हत्यारे, जिन्होंने नफरत फैलाने का काम किया। शायद देशमुख साहब इन सवालों का जबाव आपके पास नहीं। बुझा दीजिए इस नफरत की आग को हमेशा-हमेशा के लिए। कुचल डालिए उन फनों को जो क्षेत्रवाद की राजनीति के लिए उठ रहे हैं। क्षेत्रवाद को राजनीतिक मुद्दा मत बनाइए। राजनीति करने के लिए और भी मुद्दे हैं। अगर ऐसी ही घिनौनी राजनीति होती रही तो देश कई खानों में बिखर जाएगी। तबाह हो जाएगा ये देश। ढह जाएगी एकता की दिवारें।





http://mohalla.blogspot.com

शनिवार, 25 अक्तूबर 2008

मेरा सवाल मनसे हैं.........................................

मेरा सवाल मनसे हैं..............



सवाल चुँकि मनसे है, इसलिए मैं महाराष्ट्र के उन तमाम नेताओं से पूछना चाहता हूँ, जो आज-कल क्षेत्रवाद के नाम पर अपनी रोटियां सेंक रहे हैं और गाहे-बगाहे क्षेत्रवाद के नाम पर खून-खराबे पर उतर आते हैं। बार-बार ये सवाल उठते रहे हैं कि महाराष्ट्र में यूपी-बिहार के लोग आकर यहां के लोगों का हक मार रहे हैं। मैं इन नेताओं से पूछना चाहता हूँ कि महाराष्ट्र में यूपी-बिहार के लोग वहां पर छोटे-छोटे काम क्यों करते हैं। क्या यहां के लोग वहां के लोगों से जबर्दस्ती काम छीन लेते हैं या वहां के आदमी वो काम नहीं करना चाहते हैं, जो यूपी-बिहार के लोग करते हैं। इन दिनों कुछ नेताओं को ये कहते हुए सुना गया कि छोटे-छोटे कामों के लिए मेहनताना कम दी जाती है। तो गलती किसकी है? अगर मेहनताना कम मिलती है, तो क्या ये गलती उत्तर भारतीयों की है। अगर ये नेता मराठियों के इतने हिमाती हैं तो क्यों नहीं वहां के काम देने वालों को मारते हैं। उनकी ये भी दलील है कि उत्तर भारत के लोग यहां आकर मजदूरी का रेट गिरा देते हैं। अगर मजदूरी कम मिलती है, तो इसमें उत्तर भारतीयों की गलती कहां है। क्यों नहीं वहां के लोग ही टैक्सी चलाते हैं। क्यों नहीं धोबी का काम करते हैं। क्यों नहीं पानी-पुरी बेचते हैं। क्यों नहीं निर्माण के क्षेत्र में मजदूरी का काम करते हैँ।


अगर महाराष्ट्र के लोग ये सभी काम करने लगे तो यहां के लोग क्यों वहां जाएंगे। जब वहां काम ही नहीं मिलेगा तो ये लोग क्यों वहां जाएंगे। क्या ये लोग मराठियों से जबर्दस्ती काम छीनते हैं। नहीं ना। तो फिर हाय तौबा क्यो ? आखिर खून-खराबा इसलिए कि अपनी रोटी चलती रहे और छोटी सी राजनीतिक लाभ के लिए देश को भाषा और क्षेत्र के नाम पर टुकड़ों मं बांट दिया जाय। पहले ये नेता अपने गिरेबान झाकें और फिर सोंचे कि आखिर हम आने वाली पीढ़ी को देना क्या चाहते हैं। आपसी भाईचारा का संदेश या क्षेत्रवाद और अलगाववाद का दंश......................................

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2007

'अप्पन समाचार' ......हम भी हैं जोश में.............

भारत के उत्तरी राज्य बिहार में ग्रामीण महिलाओं का एक सामुदायिक समाचार कार्यक्रम इन दिनों ख़ूब धूम मचा रहा है जो पखवाड़े में एक बार टेलीविज़न पर दिखाया जाता है.
अप्पन समाचार (हमारा समाचार) नामक इस समाचार कार्यक्रम को इसी महीने यानी दिसंबर 2007 के शुरू में पहली बार टेलीविज़न पर दिखाया गया था और तभी से ये मुजफ्फरपुर ज़िले के एक दर्जन से अधिक गाँवों में काफ़ी लोकप्रिय हो गया है. इसे कभी प्रोजेक्टर पर और कभी किराए के वीडियो प्लेयर और एक बड़े टेलीविजन सेट पर दर्शकों के सामने पेश किया जाता है.

कार्यक्रम का निर्माण गंडक नदी के किनारे स्थित रामलीला गाची गाँव के एक अंधेरे से कमरे में किया जाता है जिसमे एक मेज़, दो कुर्सियां, एक पुराना टेलीविजन मौजूद है और फ़र्श पर तारों का जाल बिछा है. गाँव में पिछले चार साल से बिजली नहीं है और यहाँ अभी तक केबल टेलीविजन और लैंडलाइन फोन नहीं पहुँचे हैं. रामलीला गाची में मोबाइल फ़ोन आए हुए भी केवल एक वर्ष ही हुआ है. गाँव से सबसे निकट का अस्पताल 62 किलोमीटर दूर है और सबसे नज़दीकी पुलिस थाना 20 किलोमीटर की दूरी पर है. गाँव के लोग डकैतों और अपहर्ताओं से अपनी सुरक्षा के लिए अवैध हथियार अपने पास रखते हैं. गाँव की तीन लड़कियाँ और एक नवविवाहिता समाचार एकत्र कर करने के लिए साइकिल पर निकलती हैं और इनके पास एक सस्ता हैंडीकैम यानी वीडियो कैमरा, एक ट्रायपॉड और एक माइक्रोफ़ोन रहता है. टीम ख़ुशबू कुमारी केवल 15 वर्ष की हैं लेकिन 45 मिनट के समाचार वो एक सधे हुए एंकर की तरह पढ़ती हैं.
अनीता कुमारी उम्र में कुछ बड़ी हैं लेकिन अपने मोहक व्यक्तित्व की वजह से इलाक़े में काफी मशहूर हैं.
अप्पन समाचार बहुत कम संसाधनों के सहारे तैयार किया जाता है
अनीता कहती हैं, “मैं पानी, बिजली, किसानों की परेशानियों और महिलाओं के विषयों पर समाचार एकत्र करती हूं और फिर उन समाचारों को गाँव के बाज़ार में दिखाया जाता है जिससे प्रत्येक व्यक्ति इन्हें देखकर इनके बारे में सोच सके. इसी तरह कैमरा संभालने वाली रूबी कुमारी और नवविवाहित स्क्रिप्ट लेखिका रूमा देवी भी अपनी जिम्मेदारी बख़ूबी निभाती हैं.
इन दोनों ने बताया कि वे प्रतिदिन ऐसे विषय खोजती हैं जो ग्रामीणों को प्रभावित करते हैं और फिर इन पर प्रत्येक कोण को ध्यान में रखकर काम किया जाता है और फिर इन्हें प्रदर्शित किया जाता है.
इस अनोखे कार्यक्रम की योजना एक सामाजिक कार्यकर्ता संतोष सारंग की देन है. इस कार्यक्रम के पहले संस्करण में महिलाओं के सशक्तिकरण, निर्धनता और कृषि की समस्याओं से संबंधित समाचार दिखाए गए थे. गाँव में बिजली नहीं होने की वजह से 'अप्पन समाचार' ने प्रोजेक्टर और अन्य उपकरणों को बिजली की आपूर्ति के लिए जेनरेटर किराए पर लिया है.
संतोष सारंग ने बताया कि जल्द ही इस कार्यक्रम को प्रत्येक सप्ताह दिखाया जाएगा.
गाँव के लोग इस बात से काफी खुश हैं कि उनकी समस्याओं को टेलीविजन पर दिखाया जा रहा है और इलाके के सभी लोग उनकी आवाज़ सुन रहे हैं.
उन्हें उम्मीद है कि उनकी आवाज़ सरकारी लोगों के कानों तक भी पहुँचेगी.

गुरुवार, 6 दिसंबर 2007

बेटा ही क्यों...बेटी क्यों नहीं …..???????
हाल में ही बीबीसी ने एक स्टिंग के जरिए ये पर्दाफाश किया कि अभी भी दिल्ली में क्लीनिक में लिंग परीक्षण पर रोक के बावजूद धड़ल्ले से लिंग की जांच हो रही है। बीबीसी ने एक ब्रिटिश दंपत्ति को दिल्ली स्थित डॉक्टर तेलंग के क्लिनिक में भेजा जहाँ के बारे में पता चला था कि वहाँ अल्ट्रासाउंड के ज़रिए भ्रूण का लिंग पता किया जा सकता है. बीबीसी की फ़िल्म में डॉक्टर तेलंग यह स्वीकार करते हुए दिखाई गईं है कि वो गर्भवती महिला के अजन्मे बच्चे का लिंग बता देंगी. जबकि उसी क्लिनिक में एक संदेश स्पष्ट तौर पर जानकारी दे रहा था कि अजन्मे बच्चे का लिंग निर्धारण अवैध है. यहाँ तक कि डॉक्टर ने भी ब्रिटिश दंपत्ति को चेतावनी दी कि वो इसके बारे में किसी को न बताएँ. डॉक्टर तेलंग ने बीबीसी की टीम को बताया कि अगर टेस्ट से पता चलता है कि पेट में लड़की है तो वो गर्भपात का इंतज़ाम करवा देंगी. हाल ही आई एक रिपोर्ट के मुताबिक ब्रिटेन में बसी भारतीय मूल की कई महिलाएँ कन्या भ्रूण हत्या के लिए भारत जाती हैं. हालाँकि ऐसा करना क़ानून की नज़र में अपराध है पर बावजूद इसके भारत में कन्या भ्रूण हत्या के मामले कम होते नज़र नहीं आ रहे.

पिछले वर्ष मेडिकल
पत्रिका लांसेट की रिपोर्ट में आशंका जताई गई थी कि पिछले बीस सालों में भारत में जन्म से पहले ही करीब एक करोड़ लड़कियों की भ्रूण हत्या हुई होगी. टेस्ट के ज़रिए अजन्मे बच्चे का लिंग निर्धारण करना ब्रिटेन और भारत में अवैध है.


संयुक्त राष्ट्र के आँकड़ों के मुताबिक़ भारत में हर वर्ष साढ़े सात लाख कन्याओं को पैदा होने से पहले ही मार दिया जाता है।



मैं जहां रहता हूं, उसी फ्लोर पर सामने वाली रूम में एक किरायेदार रहता है। वह शादीशुदा है और उसे एक बेटी है। उसकी पत्नी गर्भवती थी। पति काफी चिंता में डूबा रहता था कि इसबार बेटा पैदा होगा या बेटी। उसके घर जो भी उससे मिलने आता, सबसे बस एक ही बात कहता कि भगवान करे कि इसबार बेटा ही हो। एक दिन मकान मालिक रूम का किराया मांगने आया, तो वह काफी गिरगिराने लगा कि किराया अभी नहीं दे सकता कुछ दिनों के बाद देंगे। उसकी पत्नी की हालत के देखकर मकान मालिक मान गया। उसके बाद उसने मकान मालिक से इजाजत मांगी कि अगर बेटा हुआ तो क्या मैं यहां हवन करवा सकता हूं। मकान मालिक ने इजाजत दे दी। उसने मकान मालिक से कहा कि वह भी आशीर्वाद दें कि बेटा ही पैदा हो। अगर बेटा हुआ तो ऑपरेशन करवा देंगे। इस पर मकान मालिक ने कहा ऑपरेशन क्यूं करवाएगा। तो वह बोला इतने लोगों को खिलाएगा कौन?वह दो दिनों से काफी चिंतित था। मानो वो सबकुछ लुटा चुका हो। आखिर वह दिन आ ही गया, जिस दिन का उसे इंतज़ार था। वह फिर से दूसरे बच्चे बाप बना था। इसबार उसकी मुराद पूरी हो चुकी थी। क्योंकि इसबार उसे बेटा पैदा हुआ था। वह अब काफी राहत महशूस रहा था। बच्चो की तरह चहक-चहक कर सबको बता रहा था कि बेटा हुआ है। मैं ब्रश कर था कि वह अपने रूम से बाहर आया और सीना चौड़ा कर बोला कि भाई बेटा हुआ है। ऐसा चहक रहा था मानो किला फतह कर लिया हो। उसका तो खुशी का ठिकाना नहीं था। वह इतना उत्तेजीत था कि ठीक से मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे। काफी खुश था वह। होता भी क्यों नही, आखिर बेटा जो पैदा हुआ था। बुढ़ापे की लाठी जो प्राप्त कर लिया था।
मैं ब्रश करने के बाद जैसे ही टीवी ऑन किया तो एक चैनल पर एक ख़बर आ रही थी। ख़बर ये थी कि तीन बेटों ने अपने बूढ़े माता-पिता को घर से बाहर निकाल दिया था। मैं अचंभित था। अचंभित इसलिए था, क्योंकि एक दिन पहले ही लोकसभा में एक बिल पारित हुआ था, जिसमें प्रावधान है कि कोई भी अपने माता-पिता को घर से बाहर नहीं निकाल सकता, इसके लिए बाध्य किया गया है।
आखिर हमारे समाज में हो क्या रहा है ? समाज आखिर जा किधर रहा है। एक ओर तो लोग बेटे की चाह में लड़कियों को दुनिया में आने से पहले ही गर्भ में मार रहे हैं। बेटे ही पैदा हो इसके लिए क्या-क्या नहीं करते। डॉक्टरी ईलाज से लेकर दुआएं-मन्नत तमाम चीजों का सहारा ली जाती है। वही दूसरी ओर जिस बेटे के लिए लोग सब-कुछ बर्बाद कर देते हैं। वही बेटा एक दिन अपने माता-पिता को घर में रखने के बजाय घर से बाहर निकाल देते हैं। बेटे के जन्म लेते ही घर में खुशी की लहर पैदा हो जाती है और बेटी के पैदा होने पर मातम। माता-पिता को बुढ़ापे में जिस बेटे के सहारे की आस रहती है. वही धोका दे जाता है।
तो फिर क्यों बेटी को दुनिया में आने से पहले ही मार दिया जाता है। बेटे की तरह बेटी की परवरिश क्यों नहीं की जाती। आए दिन भ्रूण हत्या के मामले समाचारों में सुर्खियां बनती रहती हैं। फिर भी इन घटनाओं से लोग सबक नहीं लेते।

भ्रूण हत्या घटने की बजाय बढ़ती ही जा रही है। लोग अपने बेटे की शादी के लिए तो सुन्दर लड़कियों की तलाश जरूर करते हैं, तो फिर क्यों बेटी को जन्म लेने से पहले ही लोगों की भृकुटी तन जाती है।

न जाने क्यों लोग इतना सब जानने के बावजूद बेटी को अहमियत देने के बजाय बेटे को ही ज्यादा अहमियत क्यों देते है ?. दोनों को बराबर क्यों नहीं मानते ?. दोनों को बराबर का ह़क क्यों नहीं देते ?. लोग बेटी को बेटे से कम क्यों ऑंकते है ?. क्या बेटी अपने मॉं-बाप की देखभाल करने में सक्षम नहीं हैं ?. तो फिर दोनों के बीच ऐसा भेदभाव क्यों ?????.